शायद इन्ही किरणों को खोजने निकला हूं ... |
खुद से -
तुम सबसे ;
ज़िन्दगी का कुछ -
नहीं पता मुझे ,
क्या कर रहा हूँ ?
बस किये जा रहा हूँ ,
ज़िन्दगी जिए जा रहा हूँ |
आशा की किरण ,
जगमगाती तो है कहीं
इन्ही किरणों को खोजने -
बस , चला जा रहा हूँ ;
प्रेम अब भी किये जा रहा हूँ |
ईश्वर का विश्वास
है अब भी मेरे साथ ,
और थोड़ा सा प्यार लेकर ,
आगे बड़े जा रहा हूँ |
चला जा रहा हूँ |
इसी आस में -
कि इक दिन शायद
मिलेंगी कुछ किरणे कहीं ,
जिन्हेंदूंगा बिखरा मैं,
दुनिया में यहीं |
पर वो किरने भी तो -
हैं हम सबमे कहीं ;
बस देर है -
उन्हें खोजने की
और सोचने की -
क्यों हारे हम ?
क्यों हारी उम्मीदें ?
कहाँ हैं वो किरने -
वो खुशियों के झरने-
वो विश्व शांति के गहने-
जिन्हें खोजने ,
मै चला जा रहा हूँ..
आगे बड़े जा रहा हूँ..
ज़िन्दगी जिए जा रहा हूं... |
- अक्षय ठाकुर "परब्रह्म"
6 comments:
Out of the World...
Thanks Gourav Bhaiyya :-)
Nice Use of Pen & page Keep It On...life Is going On,Lots Of Practicals In life..So go Ahead..
Amazing and very evocative.
Keep writing dear.
Thanks Shakti Bhaiyya and Neha :-)
Wah ParBramha Wah...
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