लम्हे नहीं शायद-
कुछ अनकही सी -अनजानी सी बातें |
इक बार फिर से रूबरू हूँ-
आज जिनसे मैं शायद |
हाँ शायद खोयी हुई सी पहचान मेरी |
कुछ पुरानी सी ख्वाहिशें,
कहीं छिपी हुई सी-
दिल के कोने में खोयी सी-
ख़्वाबों के पन्नों में दबी हुई सी |
अनजाने में ही आज ,
कुछ पन्ने-
हाँ वही पुराने पन्ने ज़िन्दगी के,
उभरे थे-
आँखों के सामने से गुज़रे थे |
तेरी याद में काटे हुए ये वही लम्हे थे-
जिन्हें कभी भूल ना पाया,
हाँ ये वही ख्वाहिशें थीं, जिन्हें पूरी ना कर पाया |
अब तो यह पन्ने भी धुंधले हो गए हैं,
तेरी वापसी की राह पर अब,
तेरे क़दमों के निशां,
जो सहेज कर रखे थे
धूमिल से हो गए हैं |
अब - मिटटी में मिल गए हैं अरमान सारे -
जो कुछ भी संजोये थे
अब मिट चुके हैं,
हाँ वो यादों के निशां, अब मिट चुके हैं |
-"परब्रह्म"