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Monday, 11 July 2011

"चला जा रहा हूं ..."

शायद इन्ही किरणों को खोजने निकला हूं ...
मै हार चुका हूँ ,
खुद से -
तुम सबसे ;
ज़िन्दगी का कुछ - 
नहीं पता मुझे ,
क्या कर रहा हूँ ?
बस किये जा रहा हूँ ,
ज़िन्दगी जिए जा रहा हूँ |
आशा की किरण ,
जगमगाती तो है कहीं
इन्ही किरणों को खोजने -
बस , चला जा रहा हूँ ;
प्रेम अब भी किये जा रहा हूँ | 
ईश्वर का विश्वास 
है अब भी मेरे साथ ,
और थोड़ा सा प्यार लेकर ,
आगे बड़े जा रहा हूँ |
चला जा रहा हूँ |
इसी आस में -
कि इक दिन शायद
मिलेंगी कुछ किरणे कहीं ,
जिन्हेंदूंगा बिखरा मैं, 
दुनिया में यहीं |
पर वो किरने भी तो -
हैं हम सबमे कहीं ;
बस देर है -
उन्हें खोजने की 
और सोचने की -
क्यों हारे हम ?
क्यों हारी उम्मीदें ?
कहाँ हैं वो किरने -
वो खुशियों के झरने- 
वो विश्व शांति के गहने- 
जिन्हें खोजने ,
मै चला जा रहा हूँ..
आगे बड़े जा रहा हूँ.. 
ज़िन्दगी जिए जा रहा हूं... |

- अक्षय ठाकुर "परब्रह्म" 

 
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