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Sunday, 28 November 2010

" ये मेरी ज़िन्दगी "

कभी पास तो कभी दूर है
ये मेरी ज़िन्दगी |
कभी खुश तो कभी गम है 
ये मेरी ज़िन्दगी |
कभी अँधेरी तो कभी रौशनी है
ये मेरी ज़िन्दगी |
कभी धुएं में तो कभी श्वेत वर्णी है
ये मेरी ज़िन्दगी |
कुछ खट्टी पर बहुत मीठी है
ये मेरी ज़िन्दगी |
कहीं तकरार तो कहीं ढेर सारा प्यार है
ये मेरी ज़िन्दगी |
कहीं तो शुरू है पर अंत नहीं है 
ये मेरी ज़िन्दगी |
बस चलते जाने की और खुशियाँ लुटाने की खातिर है
ये मेरी ज़िन्दगी |
                                            -अक्षय ठाकुर "परब्रह्म" 

" हिम्मत "


कितनी बार कहा है तुमसे
रोना धोना बंद करो
हिम्मत करके तुम आगे बढ़ो
अधिकारों के लिए अब खुद ही लड़ो
कभी हंसकर के जो तुमने
ये कुछ सपने संजोये थे
उन्हें साकार करने के लिए 
तुम डटकर आज आगे बढ़ो
हिम्मत ऐसी हो दिल में
कि हिम्मत खुद ही डर जाए
क्या हिम्मत दूसरों में फिर 
जो तुझको रोकने आयें !
                              -अक्षय ठाकुर "परब्रह्म"

Saturday, 13 November 2010

" माँ की ममता "

अरे ओ नौजवानों  ,
अब उठो और
खुद से ये पूछो |
दिया जिसने तुम्हे है सब कुछ
उसी के दिल -
-से आज तुम पूछो
कभी हमसे भी पूछो ,
और लोगों से भी पूछो |
किया तुमने है क्या 
उस माँ की खातिर
जिसने तुम्हे ममता परोसी है |
आँचल से लिपटकर जिसके
दुनिया ये सोती है |
जिसका जीवन बना आदर्श 
आज फिर , ममता वो रोई है |
जिसने सभी के चेहरों पर
मुस्कान है लायी ,
वो ममता आज फिर 
खुद हंस-हंस के रोई है |
जिसने खुद जगकर
हमको सुलाया है ,
उसी माँ की इन आँखों से 
आज फिर नींद गायब है |
किया हमने है क्यों ऐसा 
कि "ममता" खुद ही रोई है |
जिन सपनो को उसने 
तिल-तिल पिरोया है
उन्ही सपनो कि गहराई में आज
मेरी माँ फिर से खोयी है |
क्यों ये ममता आज फिर
ज़ोरों से रोई है !

                                                --अक्षय ठाकुर "परब्रह्म"

" चुनावी मौसम "

दिल में फिर 
एक आस जगी है ,
चुनावी मौसम है
और प्यास बड़ी है |
नेता आयेंगे ,
नोट लायेंगे ,
हम तो हैं नालायक ;
फिर से नोट खायेंगे |
वोट करने भी जायेंगे
पर वापस आकर ,
बार बार चिल्लायेंगे
इसने तो कुछ किया नहीं |
अगली बार ,
दूसरे नेता को जिताएंगे
फिर से नोट खायेंगे |
फिर पांच साल के लिए
काल कोठरी में छिप जायेंगे |
 हम तो हैं नालायक
फिर से नोट खायेंगे !

                                    -अक्षय ठाकुर "परब्रह्म"

"थोड़ा बड़ा हो गया हूँ..."

बस थोड़ा बड़ा हो गया हूँ ,
अब खुद को समझने लगा हूँ
सोचा तो था के 
दुनिया मेरी है ,
जब आँख खुली तब लगा
सपना देख रहा हूँ |
जिन्हें कभी अपना कहा था
वसुधैव कुटुम्बकम का अर्थ समझा था ,
उन्होंने ही रुला दिया 
हमेशा के लिए मुझे सुला दिया |
अब तो मै खुद
चलने लगा हूँ
लोगो को परखने लगा हूँ
कभी बैसाखी से चलने वाला "मै"
आज खुद के पैरो पर खड़ा हूँ
देखकर अब ख़ुशी होती है के
अब खुद को समझने लगा हूँ
पर , मेरे कुछ सपने
स्वर्णिम विश्व के लिए
आज भी आँखों में हैं लेकिन
उन्हें दफ़न कर आगे बढ चला हूँ |
बस थोड़ा बड़ा हो गया हूँ
अब खुद को समझने लगा हूँ |
                                -अक्षय ठाकुर "परब्रह्म" 
 
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